बरसों से हम लगाते, रावण जी में आग |
लेकिन वह हर साल ही, जी जाता है घाघ ||
जी जाता है घाघ, और जोरों से हँसता |
गली, मोहल्ले, शहर, देश सब जगह वो बसता ||
कहे ' शून्य ' कविराय, मारना है यदि उसको |
पहले अपने भीतर मारो, बैठ गया जो ||
- सी.एम.उपाध्याय ' शून्य आकांक्षी '
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