Sunday, January 2, 2011

पानी!!

तुमको भी क़ैद कर लिया उन्होने मुट्ठी में तुम भी उनके कहने पर मिलते हो 
उनके कहने पर बिकते हो
और जब वे कहते हैं
बिजली बन दमकते हो
पहले तुम स्वच्छंद बादल बन घूमते थे
अपनी मर्ज़ी से गरजते थे
अपनी मर्ज़ी से बरसते थे
अपनी मर्ज़ी के मालिक थे पानी
उजाड़ देते थे बड़े-बड़े जंगल
महका देते थे वन, उपवन, वाटिकाएं
तुम जब आते थे
कृषक-बालायें उतारती थीं आरतियाँ
सजाती थीं कुंकुम
कृषक सम्हालते थे अपने औजार
चारों तरफ होती थी
तुम्हारी जय-जयकार
और जब रूठ जाते थे तुम
हाहाकार के बीच बाट जोहती
बैठी रहती थी धरती
बड़े-बड़े तालाब
बन जाते थे लकीरें आडी-तिरछी सी
तब तुम मालिक थे अपनी मर्ज़ी के पानी
कम-से-कम भेद तो नहीं था
कैसा भी तुम्हारे दिल में
जितना था सबके लिए
नहीं था तो किसी को नहीं
अब कहने को तो तुम हो
पर चलते हो उनकी मर्ज़ी से
संचालित है एक-एक बूँद
क़ैद तो क़ैद है
शरीर, मन या आत्मा
बोतल में बंद हो
या फिर बड़े टैंक में
या लोहे, सीमेंट, गारे से बने
विशाल जलाशयों में
क़ैद तो क़ैद है
फिर चाहे जितना चिंघाड़ो
या चाहे जितना गुर्राओ
वह बात कैसे आ सकती है पानी!
जो ज्वारभाटा के समय
लहरें बन कर आती थी
या उन चक्रवातों में
जिनमें बड़े-बड़े जंगी जहाज़
समूचे समा जाते थे
या फिर उन बादलों में
जिनकी टकराहट से
कांप-कांप जाती थी धरती
अब तुम कुछ भी नहीं हो पानी!
न ब्रह्मा, न विष्णु, न महेश
न सत्य, न शिव, न सुंदर
बस केवल घोड़े हो
मालिक के टाँगे के
जो दौड़ता है निरंतर
चाबुक की मार से
या फिर बैल हो कोल्हू के                
जो चलता है अनवरत
बिना दूरी तय किए
अब तुम कुछ भी नहीं हो पानी!
तुमको भी क़ैद कर लिया है
उन्होने मुट्ठी में | 


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